पिछले दिनों अरविंद केजरीवाल रेडियो मिर्ची पर दिल्ली के मुद्दो पर
बात करते सुनाई दिये। रेडियो पर केजरीवाल अपना राजनीतिक एजेंडा रख सकते है कि नही
या फिर बिना लाइसेंस के कोई रेडियो न्यूज़ कैटेगरी में आने वाले विषय पर किसी
राजनेता को बुला सकता है या नही। ये महत्वपूर्ण नही है। महत्वपूर्ण यह है कि
फिल्मी गानों के बीच बैठ कर दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री को दिल्ली के गंभीर
मुद्दों पर चर्चा करने की क्या जरूरत थी। ऐसी क्या मजबूरी आन पड़ी कि जनता तक अपनी
बात पहुंचाने के लिए केजरीवाल साहब को ऐसा मनोरंजक तरीका अपनाना पड़ा।
अरविंद केजरीवाल की दुविधा समझना इतना मुश्किल भी नही। दिल्ली में
चुनाव सिर पर हैं। सीधा मुकाबला दो दलों में ही दिखाई दे रहा है। नरेंद्र मोदी की
भारतीय जनता पार्टी और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी। कुल 70 विधानसभा सीटों
वाली दिल्ली की, राष्ट्रीय राजनीती में खासी धमक है। अलग अलग वजहों से ही सही पर
सारे देश की निगाहें दिल्ली की सम्भावित राजनीति और सरकार पर लगी हैं। लोकसभा
चुनावों के बाद मुंह के बल गिरी आम आदमी पार्टी के भविष्य की राजनीती दिल्ली के
दरवाजे से हो कर ही गुजरती हैं। वहीं मोदी भी ये बात जानते होगें कि दिल्ली में आम
आदमी पार्टी की सरकार उनकी राजनीतिक उड़ान पर रोक लगा सकती है।
49 दिनों की केजरीवाल सरकार के बाद, दिल्ली के वोटरों ने लोकसभा की
सातों सीटे भाजपा की झोली में डाल दी। बड़ा ही रोचक महौल बना। दिल्ली से अरविंद
बनारस पहुंचे मोदी को हराने और उधर दिल्ली में एक भी सीट नही जीत सके। दिल्ली में
भाजपा और आम आदमी पार्टी के बीच वोटो की खाई बढ़ कर 13% हो
गई। लोकसभा चुनावों को पैमाना माने, तो आम आदमी पार्टी को दिल्ली जीतने का सपना
देखना छोड़ देने चाहिए और मोदी के लिए दिल्ली फतह बस रस्म अदायगी भर होनी चाहिए।
पर राजनीति दो दूनी चार नही होती, कभी कभी तीन या पांच भी होती है।
केजरीवाल साहब की सबसे बड़ी परेशानी प्रधानमंत्री मोदी हैं। भाजपा के
रणनीतीकारों ने एकतरह से मोदी को केजरीवाल के सामने फिट कर दिया। हलांकि
मुख्यमंत्री पद के लिए भाजपा के जगदीश मुखी का नाम उछाल कर केजरीवाल साहब ने मोदी
की धार को कुंद करने की कोशिश की। पर मामला कुछ बना नही। भाजपा मोदी के नाम पर ही
चुनाव मैदान में उतरेगी। मोदी अभी हॉट केक की तरह बिक रहे हैं। महाराष्ट्र और हरियाणा
में भाजपा की सफलता इसका सबूत है। डेवलपमेंट को मोदी बढ़े ही अच्छे अंदाज में वोटर
को परोसते हैं। दिल्ली चुनावों में भाजपा मोदी ब्रांड के साथ डेवलेपमेंट को बेचने
की कोशिश करेगी। केजरीवाल ने दिल्ली डॉयलाग को आधार बना मोदी से डेवलेपमेंट का
मुद्दा चुराने की कोशिश जरूर की। पर अभी इस मुद्दे पर मोदी की रफ्तार केजरीवाल से
बहुत तेज हैं।
दूसरी बड़ी बात जिन भावनात्मक मुद्दो पर सवार हो कर आम आदमी पार्टी सत्ता
के गलियारों तक पहुंची थी। उनमें से ज्यादातर मुद्दे ठंडे बस्ते में जा चुके हैं।
सबसे बड़ा मुद्दा था भष्टाचार का। गजब का जोश था लोगों के गले तक रूंघ जाया करते
थे भष्टाचार की बात करते करते। अब वो जोश गायब है उसकी जगह प्रैक्टिकल अप्रोच ने
ले ली है। अरविंद केजरीवाल के पास भी छिटपुट आरोपों के अलावा इस मुद्दे पर भाजपा
को घेरने के लिए कुछ भी ठोस नही। दूसरा बड़ा मुद्दा जिस पर केजरी सरकार ने इस्तीफा
दे दिया था। वो था जनलोकपाल जो अब आम आदमी पार्टी के एजेंडे पर भी नही है। अनेक
कारणों से मंहगाई भी अपने न्यूनतम स्तर पर है। काले धन पर सरकार कमजोर जरूर दिखती
है पर कम से कम काम करती दिख रही है। ऊपर से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की पहचान
पुख्ता होने से एक फील गुड फैक्टर भी है।
आम आदमी पार्टी की राह में मोदी के अलावा एक छुपा रोड़ा भी है। वो है
कांग्रेस। आंकड़े बताते है कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस के कंधे पर पैर रख कर ही
ऊपर पहुंची है। कांग्रेस ने जितने वोट खोये वो ज्यादातर आम आदमी पार्टी की झोली
में ही गिरे। कांग्रेस दिल्ली में अपने न्यूनतम स्तर पर है। अगर कांग्रेस अपनी खोई
जमीन कब्जाने की ईमानदार कोशिश करती है। तो दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी
खतरे में पड़ सकती है। कांग्रेस के लिए भी ये वजूद की लड़ाई है इसलिए उम्मीद करनी
चाहिए कि वो दोबारा अपने पांव जमाने की कोशिश करेगी।
अब बात मुस्लिम और दलित वोटर की। पिछले विधानसभा चुनावों में दलित
वोटर ने कांग्रेस को छटका दे आम आदमी पार्टी का दामन थामा था। बहुजन समाज पार्टी
भी हाशिये पर चली गई थी। स्वच्छ भारत अभियान और प्रधानमंत्री जन धन योजना के
माध्यम से मोदी ने दिल्ली के दलितों में सेंध लगाने की कोशिश की है। ये कोशिश
कितनी कामयाब होगी ये तो वक्त बतायेगा पर इसने केजरीवाल साहब के माथे पर शिकन जरूर
पैदा कर दी होगी। उधर मुस्लिम वोट कांग्रेस के साथ मजबूती से बना रहा और कांग्रेस
ने लगभग सभी मुस्लिम बहुल सीटे जीती। पर इस बार कमजोर होती कांग्रेस और मजबूत होती
भाजपा के बीच मुस्लिम वोट आम आदमी पार्टी की और झुक सकता है। मोदी के निरंजन ज्योती
जैसे मंत्री जाने अनजाने इसमें मददगार साबित हो रहे हैं। बस यही एक फ्रंट है जहां
केजरीवाल साहब को राहत मिलती दिख रही है। पर यहां भी सुई कांग्रेस की परफॉरमेंस पर
टिकी है।
इतने छोटे बड़े फैक्टर होने के बावजूद लगभग बिना मुद्दो वाला अगामी
विधानसभा चुनाव मोदी बनाम केजरीवाल होता
लग रहा है। पॉपुलर मोदी से
सीधी टक्कर और मुद्दो के अकाल के बीच केजरीवाल की मायूसी को समझा जा सकता है। अपनी
पकड़ मजबूत करने के लिए वो कुछ भी नया आजमाने को तैयार हैं। यहां तक कि एफ एम पर
रेडियो जॉकी के साथ दिल्ली डिसकस करने को भी। केजरीवाल पिछली गल्तियों
की माफी मांग कर फिर से भावनात्मक कार्ड खेलने की कोशिश में है। उन्हें समझना होगा
कि वक्त 12 महीने आगे निकल चुका है। अगर उनको दोबारा मुख्यमंत्री बनना है तो बूथ
स्तर पर संगठन मजबूत करना होगा। डेवलेपमेंट राजनीती की रेस में मोदी को हराना
होगा। अपनी विद्रोहवादी, अराजकतावादी छवि को तोड़ कर अच्छे प्रशासक की छवि बनानी
होगी। भावनात्मक अपीलों से तौबा कर कुछ ठोस मुद्दे सामने रखने होंगे। और सबसे बड़ी
बात एक गंभीर राजनेता की छवि बनानी होगी और जाहिर है रेडियो जॉकी के साथ फिल्मी
गानों के बीच गम्भीर मुद्दो पर चर्चा के ढ़ोंग से तो ये बनेगी नही।